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भारतीय अध्यात्म के सिंहावलोकन से स्प?्षट होता है कि महेवर िाव चिरकाल से आदिगुरू एवं गुरू पद पर अवस्थित हैं। गं्रथों में िाव के िा?्षयों"प्रिा?्षयों का नामोल्लेख मिलता है। पुरातन काल से िाव को रूद्र, पाुपति, ईवर, मृत्युंजय, देवाधिदेव, महाकाल, महेवर, जगतगुरू आदि उपाधियों से विभू?ि्षात किया गया है। उनके विभिन्न स्वरूपों की पूजा"अचर्ना का अविरल प्रवाह सर्वाधिक लोकपि्रय होता आया है।


चन्दा मामा सबके मामा और िाव ?ार"?ार के बाबा हो गये। देवताओं के अधिपति, असुरों के आराध्य, योगियों के योगीवर, अ?ाोरियों के अ?ाोरेवर, तांत्र्कि के महाकौेलेवर, कापालिकों के कपालेवर, गृहस्थेां के उमा"महेवर एवं निहंगों के माानी िाव के बहुआयामी व्यक्तित्व का लोक"चेतना पर अक्षुण प्रभाव है। िाव समस्त विसंगतियों में संगति की स्थापना हैं। हम आप यदि विले?्षाणात्मक दृ?ि्षट डालें तो विस्मय होगा कि िाव के विभिन्न स्वरूपों को अपनी पूर्णता में प्रसि़िद्ध प्राप्त हुई है किन्तु सदािाव, दक्षिणामूर्ति और पंचानन की महिमा से मंडित उनका ज्ञान दाता स्वरूप जन"सामान्य में प्रति?ि्षठत नहीं हुआ है।


परमात्मा को िाव सम्बोधित किया गया है। सूक्ष्मातिसूक्ष्म परम चैतन्यात्मा को ही ईवर, परमेवर, िाव, परमात्मा अथवा आत्मा आदि ाब्दों से विभू?ि्षात किया गया है। निराकार या साकार िाव की महिमा में प्रयुक्त सभी उपाधियांॅं महेवर पद को इंगित करती हैं एवं उसी का वाच्य हैं। महेवर को प्रथमगुरू एवं आदिगुरू कहा गया है। िाव का गुरू स्वरूप ग्रन्थों में वंदे विघातीथर्ं महेवरमे`, ाम्भवे गुरवे नमः,गुरूणां गुरवे नमः तथा तुम त्र्भिुवन गुरू वेद बखाना की पंक्तियों से प्रदीप्त है किन्तु केवल वैचारिक तल पर हीै। िाव के विभिन्न स्वरूपों की पूजा का कि्रयात्मक पक्ष दृ?ि्षटगोचर है लेकिन उनके गुरू स्वरूप् से यथाथर् में जुड़ाव की व्याप्ति नही है। परमदानी"अवढ़रदानी िाव की ?ार.?ार मे पूजा, मनोकामनाओं की पूर्ति हेतु दुर्गम"सुगम मंदिरों की यात्र, संकट निवारणाथर् महामृत्यंुजय का जप, महाकाल, महारूद्र, और भूतनाथ की रौद्र रूप में अभ्यथर्ना, पथिर्व िावलिंग पूजन, िाव परिवार की स्वतंत्र् एवं सम्मिलित आराधना, रूद्राभि?्षोक आदि िाव के विभिन्न स्वरूपों से सानिध्य"लाभ के विपुल दृ?ि्षटान्त हैं। िाव से िा?्षय के रूप में ज्ञानाजर्न करने वालों की संख्या अपेक्षाकृत नगण्य है। निवतर्मान काल में लोगों ने िाव को अपना गुरू मानकर अनुपम ख्याति प्राप्त की है किन्तु अनजाने कारणांे से दूसरों को िावगुरू का िा?्षय होने के लिए प्रेरित नहीं किया है।


गुरू अपने िा?्षय के व्यक्तित्व के सवोर्तम पक्ष को उजागर करते हैं और परम चेतना से उसका ऎक्य सुनििचत करते है। महेवर िाव को भी अपने िा?्षय के अविकसित ज्ञान के स्तर पर आकर उसे पूर्ण ज्ञान की स्थिति में ले जाना होता है। िावरूपी ज्ञान से संजात एक सामान्य भावाचरण भी जगत के लिए अनुकरणीय प्रमाणित होता है। यथा, साकार िाव परिवार में िाव अभिज्ञान की एक अभिव्यक्ति का चित्र्ण द्र?्षटव्य है। चित्र्ति साकार िाव परिवार में जन्मजात प्रतिकूल प्रवृति वाले पाु"पक्षियों भी सहज प्रेम हैं। बा?ा और बैल, सॉंप और चूहा, मोर और सपर् परस्पर विपरीत प्रवृतियों के धारक हैं पर िाव भावान्तर्गत आपसी प्रेम की प्रतिमूर्ति हैं। सचमुच िावभाव के िाखर की तलहटी में ही समस्त संकीर्णताएॅं तिरोहित हो जाती हैं। .